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Monday, May 21, 2007

O Ganges !

Composed on Nov 22, 1989
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ओ गंगा ! तू जो कि रही है साक्षी
फैली हुई अनगिन समय धाराओं की
करती रही है विदा बूढी़ होती सदियाँ
बता, मैं तेरे तटों पर कुछ पूछने आया हूँ ।

तेरी चपल धारा - श्वेत वस्त्र सी धरा पर
तूने तो सुना होगा राम का नाम और कृष्ण का गान
तूने देखा भी होगा बुद्ध का दैदीप्यमान मुखमंडल
और सुना समेटा होगा निर्झर जो झरा मुख से ।

बता गंगे ! कैसा था ऋचाओं का नाद
यज्ञ कुण्ड की अग्नि जब धधकती थी तटों पर
क्या करते थे होम ऋषिगण
कैसा था पवन का वेग और कैसा था सूर्य का ताप ?

बता जब तेरे तटों के इस ओर से उस ओर
उतरतीं थीं सेनाएँ - होता था शंखनाद
गुजरते थे विजयी सम्राट करते उदघोष
क्या लक्ष्य लिए जाते थे सेनानी ?

नानक की वाणी और सूफी संदेश गुजरे थे तेरे तटों से
कबीर कह गए सब सार जो था तत्त्व का; सादगी से
सूरदास और तुलसी गुनगुना गए भाक्ति भाव से
तेरे ही तटों पर नहा गए ईसा के प्यारे ।

गंगे ! क्या अब भी झरते हैं निर्झर
तेरे तटों पर क्या अब भी पवित्रता बसती है
बोल क्या पीड़ित आत्मायें नहीं आतीं
लिए चीत्कारें दूर निर्जनों में मिटाने को अग्नि ?

बता तू जो कि है कथा सार इस विस्तृत भूखंड की
हिमवान से सागर तटों तक करते नमन जन
न बह चुपचाप कर गर्जन बन विशाल
तू भी तो ऋणी है इस धरा की ।

गंगे न बनके चल तू शव वाहिनी
तू सूना वे ऋचाएं रखीं तूने जो संजो
तू बहा निर्झर बुद्ध के स्वरों का
और सुना वे गीत करें जो रोमांच पैदा ।

देख सब देख रहे हैं तेरे तटों को
तू पावन सूना वे अमर गाथाएँ
कैसे बाँटता था बन मेघ हर्ष निधि अपनी
सुन सिंघनाद वीरों का भारती मुस्काती थी कैसे ।

बता कैसा था रंग बलिदानियों के रक्त का
कैसा था आमंत्रण मृत्यु को अमर सेनानी का
बता गंगे तेरे तटों पर क्या शपथें लेते थे वीर
क्या गुनगुनाते हुए वे प्रयाण कर जाते थे ?

गंगे बता इन जनों को
चेतनता तरंगित करती है कैसे
कैसे जागृति के प्रकाश तले
खड़े करतीं हैं सभ्यताएँ विजय स्तम्भ नए ।