Sunday, October 07, 2007

समय ....

Composed on October 29, 1989
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समय ! तेरे अजस्र प्रवाह में
गुजरते पलों की गहराईयों में
मैं न जाने कहाँ से कहाँ
चला आया हूँ ।

मैं खोजता रहा शांति कभी
और फिर क्षोभ ज्वार मॆं डूब
कभी किसी पदचाप को सुन
अनजानी नींदों से जागा हूँ ।

सत्य साधक बना कभी
फिर व्यथित सा अकथ कथा बना
कुछ आँसू ढुलका
न जाने किसे बुलाता रहा हूँ ।

तू काल ! चलता रहा संग
मैं तेरे अनजान आयामों में
करता अनगिनत उपाय
तुझे खोजता रहा हूँ ।

मैं जीवन के वैरागी क्षणों में
अनुभूति को ' परा ' की ओर से
खींच कर जाने अनजाने
नए आवरण ओढ़ता रहा हूँ ।

नए सूर्यों को हर सबेरे
बिखेरते अपनी लालिमा और कांति
हर सांझ डूबते, खो जाते देखता
निःशब्द निर्जनों में घूमता रहा हूँ ।

मैं करता रहा हास
फिर रूक कर अचानक किसी पल
समय ! तेरी डोर खींचने को
विचारों मॆं लड़ता रहा हूँ ।

मैं मन्द शीतल हवाओं में
छोटी सी कुटी छा
हर सांझ नितांत अकेला
तूफानों को स्वप्न करता रहा हूँ ।

समय ! तेरे हास के अर्थ
जान कर भी न जाने क्यों
हर दिन जाने अनजाने
नए नए बिम्बों में ढलता रहा हूँ .

मैं छायाओं को अपना समझ
घुल मिलकर संग गीत कहते
फिर उनके बढते आकार ...
यकायक विलीन होते देखता रहा हूँ ।

कभी बना तू कराल
या तुझे बनाकर अपनी ढाल
तू मेरे संग या मैं तेरे
मैं यह सूत्र खोजता रहा हूँ ।