Wednesday, May 23, 2007

Realisation

Our seemigly individual existences have a connecting thread !

Explore that connection and you might stumble upon a life shaking experience...the Lord of the Universe manifests in a variety of forms and one of them starts exploring the Self and comes across the Self itself on the road built by Himself.

Monday, May 21, 2007

O Ganges !

Composed on Nov 22, 1989
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ओ गंगा ! तू जो कि रही है साक्षी
फैली हुई अनगिन समय धाराओं की
करती रही है विदा बूढी़ होती सदियाँ
बता, मैं तेरे तटों पर कुछ पूछने आया हूँ ।

तेरी चपल धारा - श्वेत वस्त्र सी धरा पर
तूने तो सुना होगा राम का नाम और कृष्ण का गान
तूने देखा भी होगा बुद्ध का दैदीप्यमान मुखमंडल
और सुना समेटा होगा निर्झर जो झरा मुख से ।

बता गंगे ! कैसा था ऋचाओं का नाद
यज्ञ कुण्ड की अग्नि जब धधकती थी तटों पर
क्या करते थे होम ऋषिगण
कैसा था पवन का वेग और कैसा था सूर्य का ताप ?

बता जब तेरे तटों के इस ओर से उस ओर
उतरतीं थीं सेनाएँ - होता था शंखनाद
गुजरते थे विजयी सम्राट करते उदघोष
क्या लक्ष्य लिए जाते थे सेनानी ?

नानक की वाणी और सूफी संदेश गुजरे थे तेरे तटों से
कबीर कह गए सब सार जो था तत्त्व का; सादगी से
सूरदास और तुलसी गुनगुना गए भाक्ति भाव से
तेरे ही तटों पर नहा गए ईसा के प्यारे ।

गंगे ! क्या अब भी झरते हैं निर्झर
तेरे तटों पर क्या अब भी पवित्रता बसती है
बोल क्या पीड़ित आत्मायें नहीं आतीं
लिए चीत्कारें दूर निर्जनों में मिटाने को अग्नि ?

बता तू जो कि है कथा सार इस विस्तृत भूखंड की
हिमवान से सागर तटों तक करते नमन जन
न बह चुपचाप कर गर्जन बन विशाल
तू भी तो ऋणी है इस धरा की ।

गंगे न बनके चल तू शव वाहिनी
तू सूना वे ऋचाएं रखीं तूने जो संजो
तू बहा निर्झर बुद्ध के स्वरों का
और सुना वे गीत करें जो रोमांच पैदा ।

देख सब देख रहे हैं तेरे तटों को
तू पावन सूना वे अमर गाथाएँ
कैसे बाँटता था बन मेघ हर्ष निधि अपनी
सुन सिंघनाद वीरों का भारती मुस्काती थी कैसे ।

बता कैसा था रंग बलिदानियों के रक्त का
कैसा था आमंत्रण मृत्यु को अमर सेनानी का
बता गंगे तेरे तटों पर क्या शपथें लेते थे वीर
क्या गुनगुनाते हुए वे प्रयाण कर जाते थे ?

गंगे बता इन जनों को
चेतनता तरंगित करती है कैसे
कैसे जागृति के प्रकाश तले
खड़े करतीं हैं सभ्यताएँ विजय स्तम्भ नए ।

Wednesday, May 16, 2007

Darkness

Composed on Nov 07, 1992
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मुझे घने अँधेरे में डर लगता है
इसलिये नहीं कि
इस अँधेरे में मुझे कुछ दिखायी नहीं देता
बल्कि इसलिये कि इस अँधेरे में वे देख सकते हैं ।

मैं  जानता हूँ कि
जैसे जैसे इस अँधेरे की उम्र खिंचती जायेगी
उनकी आंखें और अभ्यस्त होती जाएँगी
उनके निशाने और अचूक होते जायेंगे ।

तब तो उस फकीर की बात किसी ने नहीं मानी
उसने कहा था कि
सूरज डूब जाये - जो कि डूबेगा ही - तो
ज़रा भी शोक न करना ।

बस अपने घर के दीयों को
जतन से जलाए रखना
उन्हें बुझने मत देना
उन्हें अंधा बनाने को एक दिया भी काफी है ।

और अब तुम सब बैठ कर रो रहे हो
यह अँधेरा तो पहले ही इतना भयावह है
पर मुझे तो दुःख इस बात का है कि
मुझे भी उस फकीर की बात सही लगी थी ।

और मैंने सोचा भी था
दिया जलाने के लिए
इंतजाम करने को
पर न जाने क्यों मैंने कुछ नहीं किया ।




O Clouds!

Composed on Sep 04, 1992
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वर्षा के पानी की बूँदें
सरसराती ठंडी हवा
और मेरा मन -
मधुर भाव -
हाँ यही बनेगा इनसे मिलकर ।

तो बरसो
ओ मेघों ।

Tuesday, May 15, 2007

She

Composed on Jun 14, 1991
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वह आज चुप बैठी रही
सुबह से - जब उसने दूध गर्म करने को चढाया
दूध गर्म हुआ, उफान आया, और फैल गया
वह न उठी ।

छोटा बच्चा उसके पास आया - वह भूखा था
वह न उठी ।

पति ने खाना माँगा
वह खड़ा रहा - कुछ देर - और फिर चला गया ।

बच्चा भूख से कुछ देर रोया - और फिर सो गया
सूरज धीरे धीरे आसमान में चढ़ा और ढल गया ।

पर वह यूं ही बैठी रही; चुपचाप ।

वह सोचती रही न जाने क्या
कहीँ मानो उलझ गयी ।

घर भी चुप है
दीवारें सहमी सी हैं ।

शाम हो गयी है ।

बच्चा जग गया है और माँ के पास बैठा है
पति लौट आया है
वह भी पास ही बैठा है

सब इंतज़ार में हैं
वह उठे और चूल्हा फिर जले
कि फिर घर बोल उठे ।







Friday, May 11, 2007

Moments

Composed on Oct 22, 1994
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अचानक
याद आ गए
बिछुड़े हुए पल
और ठहर गया मैं
राह चलते चलते।

टटोलने लगा
अपनी
पुरानी गठरी।

चारों तरफ
हो गए
इकट्ठे लोग
और पूछने लगे
कि -
यह क्या है ?
वह क्या है ?

पर मैं कुछ न बोला
और रख दीं
सारी चीजें
झाड़ पोंछ कर
वापस।

आख़िर
मुझे
आगे भी तो जाना है |


Thursday, May 10, 2007

Mother

Composed on Apr 29, 1994
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माँ
दुनिया के इस कोने में
घर से बहुत दूर
मैं
अकेला हूँ
और
मुझे कुछ
कहना
है
जो
कोई नहीं सुनता।

थके हारे कदम लेकर
मैं
ढूंढता फिरता
थोड़ा सा सुकून
पर मुझे कहीँ भी
चैन नहीं आता
और मैं भटकता रहता
ले गीली आंखें।

तुम्हारे तवे की
वह गोल गोल रोटी
और वह डांट
याद आती है
हर रोज
और उठ जाता मैं
आधे पेट ही
देखता रहता
आसमान को।।



River

Composed on Jun 20, 1990
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जाओ छोड़ो भी
अब न सुनुँगा मैं कुछ भी
क्यों पिछली बारिश में तुमने
मेरी सीमाओं को तोड़ा था ...?

चंचल हो पर इसका यह मतलब तो नहीं
कि छोड़ दो तुम तटिनी कहलाना
मेघों को धरा से ही देखो
इस बार फिर भटक ना जाना।

ये बारिश है ही ऎसी
रोक न पाती मैं खुद को
जीवन का रस सुमधुर
हे तट मैं क्या करूं!

मैं नदी - प्यास बुझाती
पर फिर भी मैं जल की प्यासी
मत रूठो; लौट तो आती हूँ
इस बार दूर न जाऊंगी ॥

Love

Love does not stop. Love does not agree. It does not listen, it only says "I love you." And then it glows in the eyes and flows from the lips...let the love spread!

Tuesday, May 08, 2007

Silence

Is silence a fact or a feeling (?)...is it about acoustics or is it about aural capabilities...?

On a deeper thought...silence is all about cessation of vibrations...you could choose which one...!

In Sanskrit (संस्कृत) there is a word - 'spandana' (स्पन्दन) - which stands for quivering, palpitation, etc. and also connotes the beginning of life or the activity of the mind.

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः (yogah chitta vrtti nirodhah) - so says Patanjali in his Yoga Sutras. Vrtti connotes flutuations or movements. Chitta connotes mind, intellect, feeling of self - all inclusive. Yogah connotes union of the limited self with the supreme self - state of supreme bliss, peace, silence. Nirodhah connotes cessation.

So here lies the deeper meaning of silence and a hint to achieving the same by cessation of fluctuations, vibrations...