Sunday, December 09, 2007

स्वर

स्वर अभी भी गूंजते हैं
फूटे थे कोमल अधरों से बन कर राग
आग्रही प्रेम के गीतों में ढल
स्वप्नों के रंग से रंजित मोहजाल ।

निशा निमंत्रण बन कर गूंजे थे...
वे कभी घृणित हुए थे दंभ भरे
समझे थे नश्वर को सत्य
अपमान भरे विष प्यालों जैसे ।

असीम वेदना के भी वाहक
रूक रूक कर करुण पुकार बने
वे आर्द्र थे उस संध्या को
लगते थे स्वयं में डूबे ।

आज भी इतने समय के बाद
और भी अनगिनत रूपों में
उल्लसित, शांत, करुण...
वे स्वर अब भी गूंजते हैं ।