Sunday, December 16, 2007

खोज

क्या खोजते हैं सन्यासी
नश्वर जगती की राहों पर ?

क्या उकेरते हैं शिल्पी
इन पत्थर चट्टानों पर ?

क्या माँगते मर्त्य मनुष्य
अमर देव स्थानों पर ?

काल के अटल प्रवाह में
हैं सभी क्षणिक प्रतिबिम्ब ।

प्रतिबिम्ब खोजते सत्य को
सत्य में मिल जाने को ।

अपना अंतःकरण उकेरते
नयनों को दिखलाने को ।

दया माँगते मर्त्य मनुष्य
पाषाणों को पिघलाने को ।

प्रतिबिम्बों को ही फिर खोजा करते
प्रतिबिम्बों के खो जाने पर !

Sunday, December 09, 2007

स्वर

स्वर अभी भी गूंजते हैं
फूटे थे कोमल अधरों से बन कर राग
आग्रही प्रेम के गीतों में ढल
स्वप्नों के रंग से रंजित मोहजाल ।

निशा निमंत्रण बन कर गूंजे थे...
वे कभी घृणित हुए थे दंभ भरे
समझे थे नश्वर को सत्य
अपमान भरे विष प्यालों जैसे ।

असीम वेदना के भी वाहक
रूक रूक कर करुण पुकार बने
वे आर्द्र थे उस संध्या को
लगते थे स्वयं में डूबे ।

आज भी इतने समय के बाद
और भी अनगिनत रूपों में
उल्लसित, शांत, करुण...
वे स्वर अब भी गूंजते हैं ।

Saturday, December 01, 2007

चलो संग

प्रतीक्षाओं के लंबे साए
और जीवन के चुनिंदा गहरे पल
यही मूल है कुछ भी कहो
अश्रु भरी अकेली आंखों का ।

तारागण मुस्काते हों
और सौंदर्य विस्मित बने रहो
सच के साथी कुछ पल छोटे...
ढूँढ सको तो चलो संग ।

एकाकी खडे रहो तुम चुप
अश्रु ह्रदय से हो कर निकलें
सोच रहे हो गत काल प्रवाह ?
विषपान नहीं और जीवन कथा !

दीपों से सजी मधुर वीथिका...
स्वप्नों की प्राचीरों पार करते वास
अनादि सुरों से अनजाने
जाते कहाँ वैरागी आज !

मूरत के श्याम

श्रद्धा से नत मस्तक ले प्रभु द्वार तुम्हारे आया हूँ ।
पट खोल ह्रदय के तुमको अपने साथ ले जाने आया हूँ ।
वे कहते हैं कि . . . तुम ही तुम हो जग में ।
पर हे मूरत के श्याम, मैं तो तेरी यह छवि ले जाने आया हूँ ।